समस्या के समाधान का सर्वश्रेष्ठ उपाय यही है !समस्या की श्रृखला में एक नई समस्या जोड़ दो !जनता का ध्यान पुरानी समस्या से हटा उस ओर मोड दो !जो यथार्थ का प्रतिबिंब दे उस शीशे को फोड़ दो !आचार्य महाप्रज्ञ

कुछ सारहीन बेगारों को, श्रमदान नहीं कहते ! बंजर भूमि देने को, भूदान नहीं कहते ! कुछ जोड़-तोड़ करने को, निर्माण नहीं कहते ! उठ-उठ कर गिर पड़ने को, उत्थान नहीं कहते ! दो-चार कदम चलने को, अभियान नहीं कहते ! सागर में तिरते तिनके को, जलयान नहीं कहते ! हर पढ़-लिख जाने वाले को, विद्धान नहीं कहते ! एक नजर मिल जाने को, पहचान नहीं कहते ! चिकनी-चुपडी बातों को, गुणगान नहीं कहते ! मंदिर में हर पत्थर को, भगवान नहीं कहते। --मुनि तरूणसागर
समाज तो सामायिक है,क्षणभंगुर है !रोज बदलता रहता है,आज कुछ-कल कुछ !भीड भेड है!

सदगुरू, तुम्हें भीड से मुक्त कराता है !सदगुरू, तुम्हें समाज से पार लेजाता है !सदगुरु तुम्हें शाश्वत के साथ जोड़ता है !
--रजनीश

12/9/2008

क्या देश में खूनी क्रान्ति चाहते हैं राजनेता !

हमारे देश में नस्लवाद के खिलाफ क्या नक्सलवाद सक्रिय हो रहा है ? छत्तीसगढ, बिहार, उडीसा और आन्ध्रप्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में हाल ही की नक्सलवादी गतिविधियों से तो ऐसा ही महसूस होने लगा है। उडीसा में वीहीप के एक नेता की हत्या में माओवादियों के शामिल होने, छत्तीसगढ व मध्यप्रदेश में सलवा जूडूम से नाराज आदिवासियों का नक्सलियों की ओर झुकाव और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संद्य के चिन्तन शिविर में नक्सलवाद से बौद्धिक स्तर पर निपटने की रणनीति तैयार करने की खबरों से साफ हो गया है कि नक्सलवादियों का सीधा निशाना अब नस्लवादी बन सकते हैं। पडौसी देश नेपाल एक उदाहरण है। जहां तत्कालीन नेपाल नरेश विरेन्द्र और उनके परिवार की हत्या के बाद बने नये नरेश ज्ञानेन्द्र को सत्ता से हटा कर माओवादी नेपाल की सत्ता पर काबिज हो गये हैं ! इस ही तरह बिहार में नक्सलवादी संगठनों ने भूस्वामियों से मोर्चा ले रखा है, वहीं मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ में सलवा जूडूम का सहारा ले रहे नस्लवादियों से मोर्चा ले रहे हैं। अब उडीसा में भी लगता है कि नस्लवादियों के खिलाफ माओवादियों द्वारा संघर्ष की योजना बनाई जा रही है।
केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें नक्सलवादियों और माओवादियों को ताकत के बूते पर दबाने में लगी है। लेकिन जितनी ज्यादा ताकत का इस्तेमाल किया जा रहा है उतनी ही ज्यादा नक्सलवादियों व माओवादियों की संख्या और ताकत बढती जा रही है। सत्ताधीशों को आज तक नक्सलवादियों और माओवादियों में कोई फर्क ही नजर नहीं आया है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, दोनों ही स्तर पर वास्तव में गरीबों दलित शोषित वर्ग के लोगों की समस्याओं को समझ कर उनके निराकरण के लिये कोई जमीनी कार्य नहीं किया जा रहा है। हकीकत यह है कि सत्ता के भूखे राजनेता गरीबों की भलाई की डींगे मार कर और नोटों के जरिये वोट बटोर कर सत्ता पर काबिज होने की जुगत बैठाने में जुटे रहते हैं वहीं नस्लवादी अपनी विचारधारा जबरन अल्पसंख्यक, आदिवासी गरीब शोषित वर्ग पर थोपना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में वर्ग संघर्ष निश्चित रूप से तेज होता ही है। यह वर्ग संघर्ष खूनी क्रान्ति का स्वरूप न लेले ! इस पर किसी ने सोचने की जहमत ही नहीं उठाई है। वक्त है गम्भीरता से चिन्तन करने का और गरीब शोषित पीडित वर्ग की समस्याओं को सुलझाने का। तैय करना है भारत के नस्लवादी नेताओं को कि, क्या देश के राजनेता रूस की तरह भारत में भी एक स्टालिन को सत्ता में लाना चाहते हैं, खूनी क्रान्ति के जरिये- खूनी क्रान्ति के लिये ?
हीराचंद जैन hcjain41@yahoo.com